…… कांच की गुड़िया ...........(२८ /०८ /२०१४)
जब आई थी भीतर उस महल की चारदीवारी में ,
किस्मत पे इतराती न थकती थी , खुश थी बहोत ,
क्यों की खूब सूरत और बेशकीमती थी बहोत ,
लकिन ये क्या ? वो कांच की आलमारी
अब लगने लगी थी ताबूत ,
मेरे सुनहरे अरमान बिखरने लगे होने लगे चकनाचूर
मुझसे न कोई खेलता ,न मुझको कोई छूता ,
सब मुझे दूर से देखते , जैसे हूँ कोई अछूत ,
धीरे धीरे खो रही थी मै अपना वजूद ,
मै थी बड़ी आहत ,
लोगों से प्यार और दुलार की थी चाहत
हर खिलौने की तरह ,
खुलने को बेताब थी मेरे दिल की गिरह ,
क्यों की
मै कारीगर की थी सबसे दुलारी ,
मुझे लगता था हर रोता हुवा बच्चा मुझे देख चुप हो जायेगा,
मुझसे खेलते खेलते प्यार सुकून से सो जायेगा ,
लकिन ख्वाहिशें बिखर गई ,काँच के टुकड़ो सी,
कब मिलेगी आज़ादी इस काँच के महल से
भरा हुवा था मन अनिश्चितता और प्रश्न वाचक चिन्हों से ,
तभी .......
शायद वक़्त बदलने वाला था जो था भयानक
आया हवा का झोंका ,मै गिरी नीचे,
मै हो गई बदसूरत ,टूटा मेरा चेहरा,
साथ दुखों के, सर मेरे बंधता है सुख का सेहरा ,
अब ज़रुरत नहीं थी मेरी उस काँच के महल में ,
हो कर आज़ाद पड़ी थी कूड़े के ढेर में
तभी मुझको एक नन्हे हाथ ने
सहारा दे कर उठा लिया ,
मुझको नहलाया पोछा साफ किया ,
बदसूरत थी अब मै , फिर भी मुझको प्यार किया ,
मै न थी सुन्दर न होने दिया एहसास ,
शर्म आती है मुझको अपनी खूब सूरती पर ,
अच्छा ही हुवा टूट गया ,
जो वजह थी मेरी बदकिस्मत तन्हाई का ,
जाते ही उसके मै हो गई आज़ाद ,
पुरे होने लगे मेरे मासूम ख्वाब
मेरे पास एक ज़रुरतमंद बच्ची है ,
जो मेरा ख्याल रखती है,
गुज़र रहा है मेरा वक़्त अर्थपूर्ण ,
सच ही है
अपना बनाने के के लिए खूबसूरती नहीं ,
अपना बनाने के के लिए खूबसूरती नहीं ,
उसके लिए प्यार और मासूम पाक़ दिल चाहिए
जो इस ग़रीब कूड़े बीनने वाली के पास है
वो मेरे लिए सब से खास है …