***सौगात या चूक***
चले थे हम जहां से आज वापस आ गए
लौट के बुद्धू घर को हम वापस आ गए
घर से बाहर गए बिन गुज़ारा ना था
रह के घोसले में घर का पता पा गए
चलते पहियों के रफ़्तार कभी थमते ना थे
ठहरी जो चाल ,ज़िन्दगी से रूबरू हो गए
एक सलीका था अपनों से गले मिलने का
खैरियत सब की आज हम दूरी में पा गए
व्यस्त सालों से था शोर चारो तरफ
आज कोलाहल पर मौन के पहरे लग गए
परिन्दे घोसलों में अपने महफ़ूज़ कैद थे
क़ैद इंसा घर पे आज पंछी आज़ाद हो गए
ज़िन्दगी फासलों में सिमट कर रह गई
कोरोना चूक या सौगात सोचने लग गए
ज़िन्दगी फासलों में सिमट कर रह गई
कोरोना चूक या सौगात सोचने लग गए