**क्यूँ बड़े हुवे **१६/०३/२०१६
छोटे ही ठीक थे , क्यों हम बड़े हो गए ,
जात और धर्म से कोई यारी ना थी ,
प्यार से , खेल ,खाने ,से बस मतलब था,
सियासत की कोई मारा मारी न थी ,
जब चाहे मंदिर मस्जिद में आना ,
बेहिचक गुरूद्वारे में घुस जाना ,
हो कोई नाराज़ तो कोने में घुस जाना ,
मार खाई फिर भी ना रुक आना जाना ,
क्यों की ......
सियासत से महरूम था, वो वो बचपन का ज़माना ,
क़ाज़ी मुल्ला होली के रंग में दीखते थे ,
पंडित जी ईद मुबारक कहते ना थकते थे ,
क्रिसमस पर सेन्टा बन सरदार जी निकलते थे ,
केक संग गुजिया सिवइयों में मिलते थे ,
सब के त्योहारों में मस्ती हम करते थे ,
इक दूजे से मिलने का इंतज़ार हम करते थे ,
क्यों की ....
हम सियासत के बारे में ना जानते थे ,
बड़े होते ही जाने कैसी पढाई आ गई ,
केक गुजिया सिवई में जुदाई आ गई ,
त्योहारों से कोई खुश , कहीं मनहूसियत छा गई ,
इंसान के इन्सानियत को सियासत खा गई ,
सियासत की कोई सीमा न रह गई ,
दुनियां में सब से ऊपर सियासत हो गई ,
क्यों की ....
सब को सियासत की नज़र लग गई ,
गुलाल रंग अबीर का अब भी वही है ,
ईद की नमाज़ और अज़ान वही है ,
गुरूद्वारे चर्च में , प्रार्थना वही है ,
क्रिसमस वाले सेंटा का, रंग लाल वही है ,
लोहड़ी में ढोल भांगड़े का , ताल वही है ,
मासूम बचपना की , मासूमियत वही है ,
क्यों की .....
डर सियासत का इनको नहीं है ,
कुदरती नियम है हम बड़े हो गए
सियासत के हाथो मज़बूर हो गए ,
बचपन की दोस्ती में बैर हो गए ,
बचपने से अपने हम दूर हो गए ,
संग जिनके खेला कूदा वो गैर हो गए ,
कौमी सियासत में हम चूर हो गए ,
शर्म आती है हम क्यों बड़े हो गए .............
क्यों की ....
सियासती मुर्दे जो अब खड़े हो गए ,
सुनील अग्रहरि
एल्कॉन इंटरनेशल स्कूल
मयूर विहार -फेस -1
मोबाइल -08802203750
छोटे ही ठीक थे , क्यों हम बड़े हो गए ,
जात और धर्म से कोई यारी ना थी ,
प्यार से , खेल ,खाने ,से बस मतलब था,
सियासत की कोई मारा मारी न थी ,
जब चाहे मंदिर मस्जिद में आना ,
बेहिचक गुरूद्वारे में घुस जाना ,
हो कोई नाराज़ तो कोने में घुस जाना ,
मार खाई फिर भी ना रुक आना जाना ,
क्यों की ......
सियासत से महरूम था, वो वो बचपन का ज़माना ,
क़ाज़ी मुल्ला होली के रंग में दीखते थे ,
पंडित जी ईद मुबारक कहते ना थकते थे ,
क्रिसमस पर सेन्टा बन सरदार जी निकलते थे ,
केक संग गुजिया सिवइयों में मिलते थे ,
सब के त्योहारों में मस्ती हम करते थे ,
इक दूजे से मिलने का इंतज़ार हम करते थे ,
क्यों की ....
हम सियासत के बारे में ना जानते थे ,
बड़े होते ही जाने कैसी पढाई आ गई ,
केक गुजिया सिवई में जुदाई आ गई ,
त्योहारों से कोई खुश , कहीं मनहूसियत छा गई ,
इंसान के इन्सानियत को सियासत खा गई ,
सियासत की कोई सीमा न रह गई ,
दुनियां में सब से ऊपर सियासत हो गई ,
क्यों की ....
सब को सियासत की नज़र लग गई ,
गुलाल रंग अबीर का अब भी वही है ,
ईद की नमाज़ और अज़ान वही है ,
गुरूद्वारे चर्च में , प्रार्थना वही है ,
क्रिसमस वाले सेंटा का, रंग लाल वही है ,
लोहड़ी में ढोल भांगड़े का , ताल वही है ,
मासूम बचपना की , मासूमियत वही है ,
क्यों की .....
डर सियासत का इनको नहीं है ,
कुदरती नियम है हम बड़े हो गए
सियासत के हाथो मज़बूर हो गए ,
बचपन की दोस्ती में बैर हो गए ,
बचपने से अपने हम दूर हो गए ,
संग जिनके खेला कूदा वो गैर हो गए ,
कौमी सियासत में हम चूर हो गए ,
शर्म आती है हम क्यों बड़े हो गए .............
क्यों की ....
सियासती मुर्दे जो अब खड़े हो गए ,
बस
सियासत ने इंसान को कुछ ऐसा तोड़ा,
इंसान को इंसान के लायक न छोड़ा,
नफरती सियासत है बेलगाम घोड़ा,
इंसानियत से सियासत को लगाओ कोड़ा .......
सियासत ने इंसान को कुछ ऐसा तोड़ा,
इंसान को इंसान के लायक न छोड़ा,
नफरती सियासत है बेलगाम घोड़ा,
इंसानियत से सियासत को लगाओ कोड़ा .......
सुनील अग्रहरि
एल्कॉन इंटरनेशल स्कूल
मयूर विहार -फेस -1
मोबाइल -08802203750