Tuesday, 29 March 2016

Social problem hindi poem , dharm jaati ,KUY BADE HUEY POEM BY SUNIL AGRAHARI , Poem on Religion-क्यूँ बड़े हुवे


**क्यूँ बड़े हुवे **१६/०३/२०१६ 
छोटे ही ठीक थे , क्यों हम बड़े हो गए ,
जात और धर्म से कोई यारी ना थी ,
प्यार से , खेल ,खाने ,से बस मतलब था,
सियासत की कोई मारा मारी  न थी ,
जब चाहे मंदिर मस्जिद में  आना ,
बेहिचक गुरूद्वारे में घुस जाना ,
हो कोई नाराज़ तो कोने में घुस जाना ,
मार खाई फिर भी ना रुक आना जाना ,
क्यों की  ...... 
सियासत से महरूम था, वो वो बचपन का ज़माना ,

क़ाज़ी मुल्ला होली के रंग में दीखते थे ,
पंडित जी ईद मुबारक कहते ना  थकते थे ,
क्रिसमस पर सेन्टा बन सरदार जी निकलते थे ,
केक संग गुजिया सिवइयों में मिलते थे ,
सब के त्योहारों में मस्ती हम करते थे ,
इक दूजे से मिलने का इंतज़ार हम करते थे ,
क्यों की  .... 
हम सियासत के बारे में ना जानते थे ,

बड़े होते ही जाने कैसी पढाई आ गई ,
केक गुजिया सिवई में जुदाई आ गई ,
त्योहारों से कोई खुश , कहीं मनहूसियत छा गई ,
इंसान के इन्सानियत को सियासत खा गई ,
सियासत की कोई सीमा न रह गई ,
दुनियां में सब से ऊपर सियासत हो गई ,
क्यों  की  .... 
सब को सियासत की नज़र लग गई , 



गुलाल रंग अबीर का अब भी वही है ,
ईद की नमाज़ और अज़ान वही है ,
गुरूद्वारे चर्च में , प्रार्थना वही है ,
क्रिसमस वाले सेंटा  का, रंग लाल  वही है ,
लोहड़ी में ढोल भांगड़े का , ताल वही है ,
मासूम बचपना की , मासूमियत वही  है ,
क्यों की  .....
डर  सियासत का इनको नहीं है ,



कुदरती नियम है हम बड़े हो गए 
सियासत के हाथो मज़बूर हो गए ,
बचपन की दोस्ती में बैर हो गए ,
बचपने से अपने  हम  दूर हो गए ,
संग जिनके खेला कूदा वो गैर हो गए ,
कौमी सियासत में हम चूर हो गए ,
शर्म आती है हम क्यों बड़े हो गए   ............. 
क्यों  की  .... 
सियासती मुर्दे जो अब खड़े हो गए ,
बस 
सियासत ने इंसान को कुछ ऐसा तोड़ा,  
इंसान  को इंसान के लायक न छोड़ा,
नफरती सियासत है बेलगाम घोड़ा,
इंसानियत से सियासत को लगाओ कोड़ा ....... 

सुनील अग्रहरि 
एल्कॉन इंटरनेशल स्कूल 
मयूर विहार -फेस -1 
मोबाइल -08802203750 












Samajik , dharm , jaati , social problem AI KHUDA POEM BY SUNIL AGRAHARI- Poem Religion -ऐ ख़ुदा

  

*****ऐ ख़ुदा ***** जनवरी २०१६ 

तू कहाँ है ऐ परवरदिगार , ज़रा देख ले अपने बन्दों को ,
तेरे खातिर मर मिट मार रहे ,समझा इन धर्म के अन्धो को ,

जब सारे धर्म एक से है , सब की शिक्षा एक सी है ,
सब की बुनियादें एक सी है , फिर क्यों इनमे भेद  है ?

तेरे नाम का  है जो ठेकेदार , वो  बात बात पर ऐंठा  है ,
उन बन्दों की ले ज़रा खैर खबर , किस जहाँ में जा तू बैठा है ,

ऐ खुदाओं सारी दुनियाँ के , क्यों चुप से तमाशा देख रहे ,
क्या तेरी है इसमें  रज़ा  , सब तेरी मन्शा देख रहे ,

इक बार ज़मीं पर आ जाओ , कह दो धरम सब एक है ,
जंग ना कर मेरे खातिर , हम सारे खुदा भी एक से है ,