Thursday, 1 November 2012

bhookh hindi poem भूख -कविता सुनील अग्रहरि - hindi poem on hunger , greedy people by sunil agrahari

               


हर मुसीबत की जड़ है , भूख है इंसान की ,
तन की हो या मन की ,न बस की है भगवन की ,


जीतना दुनियां को सारे ,भूख अंग्रेजो की थी ,
देखते ही देखते वो , सारा देश खा गए ,
लालच की भूख ने ही, गद्दार पैदा किये ,
मुल्क के बदले में, हमें गुलामी दे गए ,


"वास्को " को भूख थी ,खोज नई दुनियां की ,
भूख की ज्वाला में ,वो अपना जूता ही खा गए ,
 जग पे बादशाहत की, भूख थी " नेपोलियन " को ,
वाटर लू की जंग में , वो मात ही तो खा गए ,


चारा पशुवो का हो या ,शहीदों का  कफ़न ,
पेड़ पर्वत खदान हो या विधवाओं का वेतन ,
ऐसे भी है नेता जिनकी भूख मिटती ही नहीं ,
खाते है एक सांस में सब ,मगर डकार लेते ही नहीं ,

भूख का रूप है ,ये घिनौनी कुरीतियाँ ,
बेटे की भूख में , मर रही बेटियां , 
जिस्म की भूख में ,रिश्ते मर मिट रहे ,
इन्सा खाने लगा, इन्सा की बोटियाँ 

BOLI BHAGWAN KI HINDI POEM - कविता सुनील अग्रहरि - POEM ON GOD hindi poem SUNIL AGRAHARI

      

                  

 तेरी गढ़ी इस दुनियां में ,तेरी भी बोली लगती  है ,
कैसी है ये दुनियां भगवान ,तुझे भी नहीं बख्शती है ,

नाम से तेरे दौलत मिलती ,सब को ऐसा लगता है ,

सबको अपने करम की मिलती ,कोई नहीं समझता है,

डर  के मारे भक्ती  और चढ़ावा दिखावा 
करते है ,
अपने आप को धोखा देते ,ढोंग को  बढ़ावा देते है ,

भूखे तन में  ईश्वर बसते ,
कृपण मूरत ये सस्ती है  ,
चंद पैसे में मिल सकती है ,पर ये तो न बिकती है ,

गरीब तन को ढकने से, 
भगवान् खुश हो जाते है    ,
ताने दे कर उसे भगाते ,अपमान उसका करते है ,

तेरे ऊपर तेरे जल को ,भर भर लोटे चढाते  है ,

प्यासे जन पक्षी और पेड़ को ,बूँद बूँद तरसाते है ,

धोखा देते अपने आप को , भ्रम भरोसा 
तुझ पर है  ,
काम गलत खुद करते ,फिर तुझको कोसा करते है ,

Poem for nature प्रकृति अपमान-कविता सुनील अग्रहरि - nature disrespect poem ,climate action by sunil agrahari



नदी पेड़ पर्वत में जब बसते , सब के भगवान हैं  ,
फिर क्यों  इनको मार रहे , ये कैसी शिक्षा ज्ञान है ,

शुद्ध हवा फल फूलदाईनी प्रकृति ये जीवनधारा है 
इनकी सेवा रक्षा  करना ये कर्तव्य हमारा है 

साँस की डोर हवा में बहती , इसका दम हम घोट रहे है 
प्रगति के नाम पे पल पल चलते 
प्रकृति का सीना छलनी करते चलाते तीर कमान ,

आलीशान महल में रहते "अली '' को हम भूल रहे है ,

पेड़ काटते  खोदते  धरती , करते हो माँ का अपमान ,

मिट्टी से तुम निकले थे ,मिट्टी में मिल जाओगे ,

आये थे  खली हाथ जहां में , खली  हाथ ही जाओगे ,

चैन से  सोया , खेला, कूदे ,जगह थी माँ गोदी ,

धरती माँ भी अपनी है , फिर उसकी आस क्यों खो दी ?