Thursday 1 November 2012

Poem for nature प्रकृति अपमान-कविता सुनील अग्रहरि - nature disrespect poem ,climate action by sunil agrahari



नदी पेड़ पर्वत में जब बसते , सब के भगवान हैं  ,
फिर क्यों  इनको मार रहे , ये कैसी शिक्षा ज्ञान है ,

शुद्ध हवा फल फूलदाईनी प्रकृति ये जीवनधारा है 
इनकी सेवा रक्षा  करना ये कर्तव्य हमारा है 

साँस की डोर हवा में बहती , इसका दम हम घोट रहे है 
प्रगति के नाम पे पल पल चलते 
प्रकृति का सीना छलनी करते चलाते तीर कमान ,

आलीशान महल में रहते "अली '' को हम भूल रहे है ,

पेड़ काटते  खोदते  धरती , करते हो माँ का अपमान ,

मिट्टी से तुम निकले थे ,मिट्टी में मिल जाओगे ,

आये थे  खली हाथ जहां में , खली  हाथ ही जाओगे ,

चैन से  सोया , खेला, कूदे ,जगह थी माँ गोदी ,

धरती माँ भी अपनी है , फिर उसकी आस क्यों खो दी ?  





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