Monday 8 October 2012

बचपन का सिकंदर -कविता सुनील अग्रहरि , child labor poem

                    

इस को कविता अखिल भारतीय अणुव्रत संस्थान से प्रतियोगिता में प्रथम पुरष्कार प्राप्त हुवा है. 


 वक्त था सुबह का , मै जा रहा था स्कूल ,
 एक जिम्मेदार कन्धा देख , मै  गया ख़ुदा  को भूल ,
 वो बोझ था परिवार का , मर रहा था बचपन 
 जिम्मेदारी ढो  रहा था, उम्र हो जैसे पचपन ,
कंधे पे एक डंडा , लड्डू थे जिसपे लटके ,
दिनभर में शायद कोई खरीदता था भूले भटके ,
जीवन में जिसके फैली थी, चारों तरफ खट्टास
वो बेच रहा था बच्चों के बीच ,जीवन की मिठास ,

सुबह का नाश्ता ,क्या उसने किया होगा ?
 खली पेट पानी शायद रास्ते में पिया होगा ,
 भूखे पेट भूख को फिर ,उसने रौंदा होगा 
सूखे गले से फिर "लड्डू ले लो" बोला होगा,

  सोचा तो होगा उसने ,कभी स्कूल मै भी जाऊँ  
  संग सब के खेलू कूदूं ,संग सब के नाचूँ  गाऊँ  ,
  दूजे का खाना खाऊ और अपना टिफिन बांटे 
  मै भी करूँ शैतानी , मुझको भी टीचर डांटे ,

 बिताता है दिन जाने वो कैसे कैसे 
 बेच कर कुछ एक  लड्डू ,कमाए गा थोड़ा पैसे ,
घर पहुंचेगा शाम को  और माँ बनाएगी खाना ,
तब जायेगा उसके पेट में एक अन्न का दाना ,

जीवन की चूल्हा चक्की में खेल खो गया 
बचपन में तरुणाई का मेल हो गया ,
खिलौने  सी उम्र में खिलौना खो  गया 
रूठी थी  किस्मत उसकी  वो भूखे पेट सो गया ,
घर के हालात से वो मजबूर हो गया ,
शिक्षा के  मंदिर से वो दूर हो गया ,
परिवार पालने के खातिर सब से दूर हो गया ,


ये भी तो नेक काम है , मानवता और धर्मं का,
पर समाज नहीं समझता ,ये विषय है शर्म  का ,

क्या ओलम्पिक में जीत को ही सम्मान मिलना चाहिए ?
मेरी  समझ से इसको भी ईनाम मिलना चाहिए ,
लेकिन    ....... 
इसको समझने के लिए दिल में दीन ,धर्मं, ईमान ,चाहिए,
पर ये हो न सका .......और
बचपन का ये सिकंदर ,घायल हो गया ,
इस उम्र में उसकी हिम्मत का मै  कायल हो गया ..............
इस उम्र में उसकी हिम्मत का मै  कायल हो गया.............
इस उम्र में उसकी हिम्मत का मै  कायल हो गया...............

                                                                       सुनील अग्रहरि 
  

3 comments:

  1. kya baat hai Sunil Bhai! aur afsos ye hai ki jaane kitne aise bachhe bina kisi ummeed ke jiye ja rahe hai..............

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    1. Yes ma'am it's true..... hum jab us bachche ki umar ke they tab hum school jate they, shaitani karte they, aur na jane kya kya.... par vo bachcha mehnat kar ke kuch kame kar apne pariwaar ka palan-poshan kar raha hai!!!! ye kitni dukh ki baat hai ki in our country where we say that every one is equal and all the children should be educated, then why do we see such scenes where children are working on roads or begging around the traffic signals!!!

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  2. प्रिय सुनिल,
    तुम्हीरे ब्लॉग की कविता 'बचपन का सिकंदर' पढ़ी.मानव मन को झकझोरती है.मेरा मन भी इस से अछूता नहीं रह पाया.पर शीर्षक मुझे अच्छा नहीं लगा ! सिकंदर संसार को जीतने निकला था.पर मैं Mauritius का रहने वाला यह जानता हूँ कि (मेरे अनुसार) सिकंदर भारत से हार कर गया था.इस लिए जो हारा वही सिकंदर !

    तुम्हारी यह कविता भारत की तपोभूमि के उन तमाम बच्चों की संघर्ष-कहानी है जो कभी स्कूल नहीं गए पर आज एक सफल नागरिक /भारतीय/इंसान हैं.At the end of the day the final goal of education is स्वावलम्बन...अपने पैर पर खड़ा होना !

    अभाव में जीनेवाला बच्चा ही प्रभाव छोड़ता है,सो तुम्हारे खुद का तजुर्बा साबित कर चुका है.इस कविता के लिए बधाई.लिखना बंद नहीं करो.तुम्हारे देश का गाँधी आज होते तो यह कविता पढ़ कर तम्हें शाबाशी देते ! आम आदमी की मेहनत राजशासन से कहीं ऊँची है.तुम्हारी कविता का लड्डू बेचने वाला बचपन किसी भी विद्वान से पहुँचा तथा बालिग़ है ! इसे सिकंदर नाम देकर छोटा न करो.सिकंदर ने मार-धाड़ जैसे छोटा काम किया था....लड्डू बेचकर मेहनत से पसीना बहा कर जैसा बड़ा काम नहीं.

    ऐसी और रचनाओं की अपेक्षा करते हुए.

    Raj Heeramun./Grand Bay/MAURITIUS/mobile 59109094./rajheeramun@gmail.com

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