Wednesday 15 October 2014

poem on zindagi , life's , हासिल ज़िन्दगी का , sunil agrahari






……  हासिल ज़िन्दगी का   ........... (१५ /१०/२०१४ )

सोचने बैठा जिंदगी के हासिल को

बहोत सोचा  तो पाया  वीरान  तन्हा  सूखे
रेत के साहिल को ,
जहाँ मेरे बीते वक़्त का सैलाब जा चुका था
और बचे रह गए  थे मेरे बीते  लम्हों के टुकड़े
जिन्हे जी  चुका  था  मै , वो मुझसे दूर थे  पड़े ,

उनमे कुछ  थे छोटे छोटे लम्हों  के टुकड़े 

जो थे  बहोत खुश और हँसीं 
जिन्हे मैं जी भी  न पाया  था भरपूर  
उनकी यादें अभी तक है बसी जैसे सुन्दर हूर ,
क्यों की हँसी लम्हों की  मियाद बहोत कम होती है  ,

वहीं पास में कुछ बड़े  बड़े

टुकड़े लम्हों के थे  पड़े,
वो  लम्हे थे   दुःख के, 
याद आये थे खुदा  उनको जीने  में,
लेकिन ख़ास   बात थी उन लम्हों  की 
उनको जीने के बाद जैसे सोना आग में तप कर
 कुंदन बन जाता है , मैं  भी मजबूत हो गया था ,
क्यों  की दुःख  मुसीबत ज़िन्दगी जीना सिखाती है 

वहीं थोड़ी दूर पर कुछ लम्हे थे बड़े उदास  ,

जिनमे मै  कुछ कर न पाया था ख़ास 
सिवाय  सोचने के ,
ऐसे लम्हे  छोटे बड़े के थे कई टुकड़े 
ये भरे थे इन्तज़ार  और उलझन से ,
 भारी थे  बड़े ये इसी लिए  
इनको बिताना बहोत मुश्किल होता है 
किसी इंसान के लिए ,  

अभी मै बात कर  ही रहा था के 

इन लम्हों  ने बताया 
जिस वक़्त आप थे सुखी 
कुछ लोग आप को देख कर थे बहोत दुखी 
और जिन लम्हों में आप थे बहोत दुःखी 
वहीँ कुछ लोग आप की हालत देख थे बहोत सुखी 
आज का इन्सान बड़ा अजीब है 
वो अपने दुःख का तो इलाज कर लेता है ,
असली मुसीबत तो तब होती है
"जब वो दुखी होता है 
किसी के सुखी होने से  "  ………

सुन कर लम्हों की बाते  लगा क्या यही कमाया मैंने ?????

लोगों की  वो हंसी  ,दिलासा , एहसान ,भरोसा एक धोखा  था  ?????,
यही हासिल है मेरे ज़िन्दगी का ????
फिर आज सोचने बैठा जिंदगी के हासिल को  ……… 









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