Tuesday 25 March 2014

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   ……… जूठी भूख  ..............


ये बात है उस बच्ची की ,जो चौराहे के लाल बत्ती पे गाड़ियों में लोगो से भीख मांगती है अपनी भूख और ज़रूरत को पूरी करने के लिए , वहीं दूसरी तरफ संपन्न लोग खाना और तमाम चीज़ें यूँ ही बर्बाद कर देते है,अब आगे ……

ऐ बाबू एक रूपया दे दो 
भूख  लगी कुछ खाना है ,
सूखी आंते ,भूख कलपती 
अन्न का नहीं  ठिकाना है ,
कुछ वक्त पहले कि बात है 
गई थी रात शादी में ,
मजा बहोत आया था 
टेन्ट के पीछे गन्दी वादी में ,
मेहमानो से छुप  बैठी थी
अमीर घनी आबादी में ,
पता है क्यों ..........? 
क्यों कि तरह तरह के जूठे   पकवान मिल  रहे थे 
कूड़े के ढेर में ,
जूठे पत्तलों में भगवन मिल रहें थे 
 जैसे थोड़ी थोड़ी देर में ,
जैसे कान्हा ने द्रोपदी के बर्तन से जूठन खा कर 
दुर्वासा ऋषि कि क्षुधा तृप्त कि थी 
ठीक वैसी मेरी भी शांत हो रही थी ,
पेट भरने की ख़ुशी थी  
और साथ साथ गम भी पल रहा था ,
क्यों कि…… 
दूर नीले सलेटी आसमानो के बीच
आफ़ताब दस्तक दे रहा था  
जल्दी जल्दी जूठन के ढेर से
पूड़ी और रोटी के टुकड़े  
बिन कर रख लिया थैले में ....... 
कि जब बुरा वक्त आएगा तब काम आएगा ,
ऐसे जूठन  तो रोज रोज नहीं मिलते  न बाबू जी .......... 
अब उसी आफ़ताब कि धूप  में जूठन सुखा  रख लूंगी 
जिस आफ़ताब का अभी आने का गम है ,
हमें तो जूठन भी बड़े नसीब से मिलता है ,
साफ़ और सच्चा खाना तो हमें बस देखने को मिलता है 
ऐ बाबू एक रूपया दे दो 
भूख  लगी कुछ खाना है ,
सूखी आंते ,भूख कलपती 
अन्न का नहीं  ठिकाना है। ............................ 

                                            सुनील अग्रहरि 






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