.. रेल गाड़ी (हास्य )(१६/०७ /२०१५ )
मेरी एक रेल यात्रा का अनुभव वर्णन है इस कविता में और मुझे ऐसा लगता है आप थोड़ा ध्यान दें तो सभी यात्रा के अनुभव के रंग ऐसे ही होंगे.
चली रेलगाड़ी चली रेलगाड़ी
भीड़ भरे डिब्बे में धक्का और धुक्की
छोटी छोटी बातों में मुक्का और मुक्की
बैठने के चक्कर में मची ठेलम ठेला
पीछे के लोगों ने आगे धकेला
शोर मच रहा था जैसे कुंभ का हो मेला
ऊपर नीचे चारो तरफ सामान था फैला
गोद में बच्चे को सूझ रहा खेला
मोटू चढ़ रहा था खाते हुवे केला
बैठे लोग आराम से खुला सब का खाना
दो पूड़ी दे दो कोई कह रहा था
सब्ज़ी संग आचार का मज़ा ले रहा था
मिठाई छुप छुपा कर कोई खा रहा था
खट्टी मीठी खुशबू से नाक फट रही थी
अकेले बैठे भूखे की नज़र ना हट रही थी
बच गया थोड़ा खाना ख़तम इसको कर दो
आवाज़ आई ऊपर से भिखारी को दे दो ,
मिर्ची लग गई थोड़ा पानी दे दो भैया
बोतल छुट गई घर हाय मेरी दइया
मम्मी पापा बच्चे को बाय कह रहा था
कोई बोला सीट खोलो मुझको है सोना
अचानक शुरू हो गया एक बच्चे का रोना
माँ बोली चुप हो जा लोग सो रहे है
थके लेटे लोगों को आने लगी झपकी ,
लोरी माँ सुनाने लगी देने लगी थपकी
टपक पड़ा टी टी बोला टिकट तो दिखाओ
बगल में लेटे बच्चे की उम्र तो बताओ
कीमती सामान वाले पूरी रात जागे ,
भागती हुई रेल चढ़ रही थी पहाड़ी
चली रेल गाड़ी चली रेल गाड़ी …………
भागती हुई रेल चढ़ रही थी पहाड़ी
चली रेल गाड़ी चली रेल गाड़ी …………
देखा तो खिड़की पे था कोई लटका
इतने में चाय ले लो आवाज़ दी सुनाई
देखा जो सवेरा तो जान में जान आई
हबड़ दबड़ सामान ले उतर रहे लोग
बेड टी वाले चाय का लगा रहे भोग
वेटिंग टिकट गुस्से से लोगों ने फाड़ी
मची अफरातफरी , जब रुकी रेलगाड़ी
चली रेलगाड़ी चली रेलगाड़ी कभी चलती सीधी कभी चलती आड़ी ....
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