……… कलयुग माया 18/04 /2014 ………
रक्त से विरक्त है ,अश्रु का अभाव है ,
काल ये अकाल सा , भाल पे उभार है ,
धर्म से अधर्म है , आधार निराधार है ,
अजन्मे जैसे मत जियो ,जन्म से ही धार है ,
नदी के जल से ताल है , ताल ही सुखान्त है ,
बेताल हो तो ज़िन्दगी ,अन्त ही दुखान्त है ,
सुकर्म जैसे कर्म से ,फैलती सुगन्ध है ,
अकर्म स्थिर जल से गन्ध फैलती दुर्गन्ध है
गंवार नागँवार है , भार सा आभार है
गंवार नागँवार है , भार सा आभार है
स्वभाव जल सा हो तो गंवार भी स्वीकार है,
मोह माया युक्त प्राणी ,फरेब में शुमार है ,
ताण्डव मृत रिश्तों का ,हवस बेशुमार है
भ्रम से भ्रमित बुद्दिजीवी ,वीभत्स अस्त व्यस्त है
निराश आस में भरी , विश्वास जैसे अस्त है ,
जीव जन्तु संख्य असख्य ,सब का अन्त अनन्त है ,
प्रकाश भय से व्याप्त ग्रसित पूर्ण दिग दिगंत है ,
क्षत विक्षत अस्थियां , चीख और पुकार है ,
लोभ लिप्त मन अशांत ,मद्य का खुमार है ,
प्रचंड चण्ड तेज है , वेग आवेग चाल है ,
लहू लुहान दृष्टि है , छिन्न भिन्न हाल है ,
बच सकेगा न कोई , जो न सुधारी आदतें,
वक्त कलयुगी की जैसे आ रही है आहटें ,
१८/०५/२०१४
हिला देने वाली रचना है ये…। मानव की संकीर्णता और भौतिकवाद पर सीधा प्रहार है ……
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