Monday 26 May 2014

kalyoug maya hindi poem @sunil agrahari

            ……… कलयुग माया   18/04 /2014 ……… 
















चित्र ये विचित्र है ,भाव का अभाव है ,
रक्त से विरक्त है ,अश्रु का अभाव है ,

काल ये अकाल सा , भाल पे उभार है  ,
सत्य और असत्य है ,हार की बहार है 


धर्म से अधर्म है , आधार निराधार है ,
अजन्मे जैसे मत जियो ,जन्म से ही  धार है ,

नदी के जल से ताल है , ताल ही सुखान्त  है ,
बेताल हो तो ज़िन्दगी ,अन्त  ही दुखान्त  है ,

सुकर्म जैसे कर्म से ,फैलती सुगन्ध है ,
अकर्म स्थिर जल से गन्ध फैलती दुर्गन्ध है

 गंवार नागँवार है , भार  सा  आभार है 
स्वभाव जल सा हो तो गंवार  भी स्वीकार है,

मोह माया युक्त प्राणी ,फरेब में शुमार है ,
ताण्डव मृत रिश्तों का ,हवस  बेशुमार है 


भ्रम से भ्रमित बुद्दिजीवी ,वीभत्स अस्त व्यस्त है 
निराश  आस  में भरी , विश्वास जैसे अस्त है ,

जीव जन्तु संख्य असख्य ,सब का अन्त अनन्त  है  ,
प्रकाश भय  से व्याप्त ग्रसित पूर्ण दिग  दिगंत  है ,

क्षत विक्षत अस्थियां , चीख और पुकार है ,
लोभ लिप्त मन अशांत ,मद्य का खुमार है ,


प्रचंड चण्ड तेज है , वेग आवेग चाल है ,
लहू लुहान दृष्टि है , छिन्न भिन्न हाल है ,

बच  सकेगा न कोई , जो न सुधारी  आदतें,
वक्त कलयुगी की जैसे आ रही है आहटें ,

१८/०५/२०१४ 




1 comment:

  1. हिला देने वाली रचना है ये…। मानव की संकीर्णता और भौतिकवाद पर सीधा प्रहार है ……

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