पत्रिका-आक्रोश
जुलाई -2016
बदकिस्मती से पंछी की चोंच से
गिरा उन पत्थरों के बीच ,
जहाँ पानी अब तक न पाया था
किसी को सींच ,
मुझको अपना भविष्य
दिख रहा था खतरे में ,
क्यों की मेरा वज़ूद जुड़ा था
पानी के एक एक कतरे में ,
बादल बरसे बार बार
और मैं हरपल करता इंतज़ार ,
एक बूँद कभी पानी की
मुझे ले अपने आगोश में ,
मुझे इतिहास बनने से रोक ले
मेरा वज़ूद रहे कायनात में ,
चलती है जब हवा बयार
हिलता रहता हूँ बार बार ,
कि निकल पाऊँ इस अँधेरे कोने से ,
मैं भी जुड़ पाऊँ नीले आसमाँन से ,
इन्तज़ार और मेहनत रंग लाई ,
मुकद्दर से कुछ बूँद मुझ तक पहुँच पाई,
मैं तैयार हूँ आज अंकुरित होने को,
पत्थरों की ओट से सूरज की रोशनी पाने को ,
अब मैं अपने होने का एहसास कर सकता हूँ ,
बन के दरख़्त काम किसी के आ सकता हूँ ,
शायद ज़िन्दगी ऐसी ही है,
जिसको अपने हुनर और मुकद्दर से
जीती जा सकती है,
वर्ना ज़िन्दगी खो जाती है
गुमनामी के अँधेरे में।
बदकिस्मती से पंछी की चोंच से
गिरा उन पत्थरों के बीच ,
जहाँ पानी अब तक न पाया था
किसी को सींच ,
मुझको अपना भविष्य

क्यों की मेरा वज़ूद जुड़ा था
पानी के एक एक कतरे में ,
बादल बरसे बार बार
और मैं हरपल करता इंतज़ार ,
एक बूँद कभी पानी की
मुझे ले अपने आगोश में ,
मुझे इतिहास बनने से रोक ले
मेरा वज़ूद रहे कायनात में ,

हिलता रहता हूँ बार बार ,
कि निकल पाऊँ इस अँधेरे कोने से ,
मैं भी जुड़ पाऊँ नीले आसमाँन से ,
इन्तज़ार और मेहनत रंग लाई ,
मुकद्दर से कुछ बूँद मुझ तक पहुँच पाई,
मैं तैयार हूँ आज अंकुरित होने को,
पत्थरों की ओट से सूरज की रोशनी पाने को ,
अब मैं अपने होने का एहसास कर सकता हूँ ,
बन के दरख़्त काम किसी के आ सकता हूँ ,
शायद ज़िन्दगी ऐसी ही है,
जिसको अपने हुनर और मुकद्दर से

वर्ना ज़िन्दगी खो जाती है
गुमनामी के अँधेरे में।