Magazine- Amrit Prabhat 1980
patthar ka dard |
तराशो न मुझे ,यूँ ही पड़ा रहने दो
राह का पत्थर हूँ ,यूँ ही ठोकर खाने दो
ग़र तराशोगे मुझको हथोड़े चलेंगे
पैरों के ठोकर की आदत पड़ी है ..........
वैसे तो ठोकर भी अब सहा नहीं जाता
जाने किस्से
चोट लगी ,बड़ी तेज़ चिंगारी
उठी
सोचा चिल्लाऊं
,लेकिन आवाज़ ही नहीं निकली
सोचा, देखूं ,कहाँ चोट लगी है ?
देखते ही आँखों ने नम होना चाहा
मगर ऑंखें, रेगिस्तान जैसे सुखी रह गई ,
फिर अचानक याद आई .......
हमारी जात में ऐसी सुविधा
कहाँ ,
रब ने हम पत्थरों से क्यूँ की बेवफाई
हम पत्थरों की जात में आवाज़ आंसू क्यों न बनाई ,
हम इसी में संतोष कर लेते ,
जिसने जैसा चाहा तोड़ा, जैसा चाहा फोड़ा ,
मगर हमने उफ़ तक ना किया , जवाब भी ना दिया ,
किसी को मरने काम भी मुझसे ही लिया ,
क्या करूँ .... हाथ ही नहीं है ……नहीं तो रोक लेता ,
सारी अहिंसा तो हम पत्थरों की जात में मिलेगी ,
वैसे हम लोगो को इसी बात का गर्व
और इसी बात का दर्द है ,
शायद इसी लिए हम लोग पत्थर कहे जाते है ,
अरे ओ ऊपर वाले ,
हम लोगो की थोड़ी सी अहिंसा मनुष्यों को दे देते ,
तो शायद ये मनुष्यों की ये हालत न होती ,
और हमें इनके थोड़े से आंसू दे देते
तो शायद हम लोग भी रो कर जी हल्का कर लेते ,
तब शायद पत्थर होने का ग़म न होता ………३
हम पत्थरों की जात में आवाज़ आंसू क्यों न बनाई ,
हम इसी में संतोष कर लेते ,
जिसने जैसा चाहा तोड़ा, जैसा चाहा फोड़ा ,
मगर हमने उफ़ तक ना किया , जवाब भी ना दिया ,
किसी को मरने काम भी मुझसे ही लिया ,
क्या करूँ .... हाथ ही नहीं है ……नहीं तो रोक लेता ,
सारी अहिंसा तो हम पत्थरों की जात में मिलेगी ,
वैसे हम लोगो को इसी बात का गर्व
और इसी बात का दर्द है ,
शायद इसी लिए हम लोग पत्थर कहे जाते है ,
अरे ओ ऊपर वाले ,
हम लोगो की थोड़ी सी अहिंसा मनुष्यों को दे देते ,
तो शायद ये मनुष्यों की ये हालत न होती ,
और हमें इनके थोड़े से आंसू दे देते
तो शायद हम लोग भी रो कर जी हल्का कर लेते ,
तब शायद पत्थर होने का ग़म न होता ………३
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