****तरक्क़ी ( तंज़)****
तरक्की तो रोज़ हम करते जा रहे है,
कच्चे थे जो मकाँ अब पक्के हो रहे है,
छोटी छोटी जगह पर मीनार बन रहे है ,
छोटे छोटे कमरों में सिकुड़ते जा रहे है ,
क्या खूब रोज़ हम तरक्की कर रहे है ,
बड़े बड़े मैदान छोटे होते जा रहे है ,
घास मिट्टी कम ,पक्के फर्श बन रहे है ,
घास हटा असली , नकली लगा रहे है,
कच्ची माटी से पैरों के , रिश्ते ख़त्म हो रहे है ,
क्या खूब रोज़ हम तरक्की कर रहे है ,
अपनी भाषा बोलने में शर्म रहे है ,
विदेशी भाषा में पी. एच. डी. कर रहे हैं ,
छोड़ अपनी संस्कृति पाश्चात्य हो रहे है ,
अपनी ही सभ्यता पर प्रश्न चिन्ह लगा रहे है ,
क्या खूब रोज़ हम तरक्की कर रहे है ,
रिश्तों के मायने ,रोज़ ग़ुम हो रहे है ,
सीमित भावनाओं से ग्रसित हो रहे है ,
बिना मतलब ही जज़्बाती हो रहे है ,
मज़हबी उन्माद से वक़्त सींच रहे है,
क्या खूब रोज़ हम तरक्की कर रहे है,
मिट्टी की सोंधी खुशबू से लोग दूर हो रहे है ,
मिट्टी के खिलौने बच्चों से दूर हो रहे है ,
इस मिट्टी के खातिर तो केवल जवान मर रहे है ,
इस मिट्टी से जुड़े हुवे किसान मर रहे है ,
क्या खूब रोज़ हम तरक्की कर रहे है....3
०८/०६/२०१६ रात 2 बजे
poem on modern progress , social issues , tarakki