Tuesday, 14 June 2016

Poem on zindagi , AYA HUN POEM BY SUNIL AGRAHARI - HINDI POEM ON HELPING OTHERS AND POSITIVITY -आया हूँ



****आया हूँ*** 
                                                                                                                   
                                                                                                               
दो कदम तुम चलो ,चार हम भी चले ,
तुमसे कन्धा मिलाने आया हूँ मैं ,

तेरी खुशियों से मुझको मतलब नहीं ,

बांटने तेरे ग़म को आया हूँ मैं ,

मुश्किलें है तेरी ,लड़ना तुझको ही हैं ,

हौसला बस तेरा बढ़ाने आया हूँ मैं ,

 इस जहाँ में ना रो , तन्हा ही तू ,

अश्क को पोछने तेरे,आया हूँ मैं ,

वक्त हो अच्छा तो ,साथ देते है सब ,

 गर्दीशी को निभाने तेरे, आया हूँ मैं ,

वो इन्सां ही क्या ,जिए खुद के लिये ,

 जीने दूजो के खातिर ,  आया हूँ मैं , 
१२/०६/२०१६--- रात २:३० बजे





Poem on zindagi , life's , BEWAJAH POEM BY SUNIL AGRAHARI -hindi poem on without any reason positivity and willingness-बेवजह

     
**** बेवजह****  
                                                                                                            
समझदार बन के , खामोश बैठे हो ,
बेवजह भी कभी मुस्कुराया करो ,

ग़र मतलब हो , घर से बाहर आते हो ,

बेवजह भी कभी निकल आया करो ,

काम की बाते तो हर वक़्त करते हो ,

बेवजह बातें करने भी कभी आया करो ,

ज़रूरत पर ही लोगो से क्यूँ मिलते हो ?

बेवजह भी कभी मिलने आया करो  ,

अपनों से तो गले तुम रोज़ मिलते हो ,

बेवजह के भी रिश्ते कभी निभाया करो ,

होशियार ज़िम्मेदार बड़े बनते हो ,

बेवजह बच्चों संग कभी खेला करो ,

ज़िंदा रहने के खातिर वजह ढूँढते हो ,

बेवजह ज़िन्दगी भी कभी जिया करो ,    १२/०६/२०१६ ---रात 2 बजे 

Poem on mukaddar, kismat, bhagya , ,CHALTA RAHA POEM by sunil agrahari -hindi poem on gambling , life struggle -चलता रहा

       

                                                                                                                 





****चलता रहा****


चाल पे चाल मैं यूँ ही चलता रहा ,
रात को दिन में तब्दील करता रहा,
ज़िन्दगी से जुआ खेलता ही रहा,
दूर बैठा था मुझसे मुकद्दर मेरा ,

वक़्त भी ये माजरा सब देखता रहा ,
खुल के शै , छुप के मात ,मैं चलता रहा ,
पलके बोझिल हुई , पर संभलता रहा ,
अपनी हिम्मत का परा ना गिरने दिया ,

जीतना मुकद्दर को , मेरा मकसद रहा ,
बिसात की चाल को मैं समझाता रहा ,
बिना वक़्त के मैं यूँ ही मात खाता रहा ,
आया वक़्त जब क़रीब ,शै मेरा हो गया ,


वक्त को साथ ले चाल चलता रहा ,
आहिस्ता आहिस्ता मैं जीत के करीब आ गया। 
  ०९/०६/२०१६  ---रात  १ बजे


Hindi kavita adhunikta par ,TARKKI hindi poem by sunil agrahari- on social progress and leaving our culture तरक्क़ी ( तंज़)






****तरक्क़ी ( तंज़)****

                                                                  तरक्की तो रोज़ हम करते जा रहे है,
कच्चे थे जो मकाँ अब पक्के हो रहे है,
छोटी  छोटी जगह पर मीनार बन रहे है ,
छोटे छोटे कमरों  में  सिकुड़ते जा रहे है ,
क्या खूब रोज़ हम तरक्की कर रहे है ,

बड़े बड़े मैदान  छोटे होते जा रहे है ,
घास मिट्टी कम ,पक्के फर्श बन रहे है , 
घास हटा असली , नकली  लगा रहे है,
कच्ची माटी से पैरों के , रिश्ते ख़त्म हो रहे है ,
क्या खूब रोज़ हम तरक्की कर रहे है , 

अपनी भाषा बोलने में शर्म  रहे है  ,
विदेशी भाषा में पी. एच. डी. कर रहे हैं ,
छोड़ अपनी संस्कृति पाश्चात्य  हो रहे है ,
अपनी ही सभ्यता पर प्रश्न चिन्ह लगा रहे है ,
क्या खूब रोज़ हम तरक्की कर रहे है ,

रिश्तों के मायने  ,रोज़ ग़ुम हो रहे है , 
सीमित भावनाओं से ग्रसित हो रहे है ,
बिना मतलब ही जज़्बाती हो रहे है ,
मज़हबी उन्माद से वक़्त सींच रहे है,
क्या खूब रोज़ हम तरक्की कर रहे है,

मिट्टी की सोंधी खुशबू से लोग  दूर हो रहे है ,
मिट्टी के खिलौने बच्चों से दूर हो रहे है ,
इस मिट्टी के खातिर तो केवल जवान मर रहे है ,
इस मिट्टी से जुड़े हुवे किसान मर रहे है ,
क्या खूब रोज़ हम तरक्की कर रहे है....3 
 ०८/०६/२०१६  रात 2 बजे 

poem on modern progress , social issues , tarakki 







Poem on zindagi , rishte , relationship ,GULLAK POEM BY SUNIL AGRAHARI-poem-गुल्लक

                              

  ***गुल्लक ***                                                                             मेरा प्यार का गुल्लक टूट गया,

मेरा सब कुछ जैसे रूठ गया,
उसमे रिश्तों की जमा पाई थी,
जो अन्जाने में मैंने कमाई थी,
छोटी मोटी खुशियों के फुटकर थे उसमें,
बचपन के माता पिता का प्यार था जिसमें,
वो मेरे सबसे अनमोल थे सिक्के,
लड़कपन और दोस्ती वाले मासूम प्यारे सिक्के,
अड़ोस पड़ोस रिश्तेदारों के खट्टे मीठे सिक्के,
वो पहला स्कूल गया था मैं जिसमे,
तोतली ज़ुबाँ से बोला था उनसे,
समझ नहीं पाते थे अध्यापक ,
फिर भी प्यार किया मुझसे ,
वो प्यार जैसे रिश्ते ,खनखन खनकते जैसे सिक्के,
बड़ा हुआ अब मैं हुआ समझदार,
इन रिश्तों के गुल्लक में देखा दरार,
भरा हुआ गुल्लक मेरा टूटा पहली बार,
कच्ची मिट्टी पक कर  टूट हुई जैसे बेकार,
वो सिक्के हो गए खोटे, अब नहीं पुराने बाजार,
जहाँ चले मेरा सिक्का , चले जमा पाई प्यार,
फूटा मेरा गुल्लक, बिखरा मेरा प्यार,
रिश्तों के सिक्कों की इज़्ज़त करो यार ,
पैसे मिल जायेंगे ,पर रिश्ते न मिलेंगे यार ,
रिश्तो के बिना ये दुनियाँ है बेकार ,
रिश्तों के गुल्लक में न आने दो दरार  ........  
१३/०६/२०१६---रात १ बजे