Tuesday 14 June 2016

Hindi kavita adhunikta par ,TARKKI hindi poem by sunil agrahari- on social progress and leaving our culture तरक्क़ी ( तंज़)






****तरक्क़ी ( तंज़)****

                                                                  तरक्की तो रोज़ हम करते जा रहे है,
कच्चे थे जो मकाँ अब पक्के हो रहे है,
छोटी  छोटी जगह पर मीनार बन रहे है ,
छोटे छोटे कमरों  में  सिकुड़ते जा रहे है ,
क्या खूब रोज़ हम तरक्की कर रहे है ,

बड़े बड़े मैदान  छोटे होते जा रहे है ,
घास मिट्टी कम ,पक्के फर्श बन रहे है , 
घास हटा असली , नकली  लगा रहे है,
कच्ची माटी से पैरों के , रिश्ते ख़त्म हो रहे है ,
क्या खूब रोज़ हम तरक्की कर रहे है , 

अपनी भाषा बोलने में शर्म  रहे है  ,
विदेशी भाषा में पी. एच. डी. कर रहे हैं ,
छोड़ अपनी संस्कृति पाश्चात्य  हो रहे है ,
अपनी ही सभ्यता पर प्रश्न चिन्ह लगा रहे है ,
क्या खूब रोज़ हम तरक्की कर रहे है ,

रिश्तों के मायने  ,रोज़ ग़ुम हो रहे है , 
सीमित भावनाओं से ग्रसित हो रहे है ,
बिना मतलब ही जज़्बाती हो रहे है ,
मज़हबी उन्माद से वक़्त सींच रहे है,
क्या खूब रोज़ हम तरक्की कर रहे है,

मिट्टी की सोंधी खुशबू से लोग  दूर हो रहे है ,
मिट्टी के खिलौने बच्चों से दूर हो रहे है ,
इस मिट्टी के खातिर तो केवल जवान मर रहे है ,
इस मिट्टी से जुड़े हुवे किसान मर रहे है ,
क्या खूब रोज़ हम तरक्की कर रहे है....3 
 ०८/०६/२०१६  रात 2 बजे 

poem on modern progress , social issues , tarakki 







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