****चलता रहा****
चाल पे चाल मैं यूँ ही चलता रहा ,
रात को दिन में तब्दील करता रहा,
ज़िन्दगी से जुआ खेलता ही रहा,
दूर बैठा था मुझसे मुकद्दर मेरा ,
वक़्त भी ये माजरा सब देखता रहा ,
खुल के शै , छुप के मात ,मैं चलता रहा ,
पलके बोझिल हुई , पर संभलता रहा ,
अपनी हिम्मत का परा ना गिरने दिया ,
जीतना मुकद्दर को , मेरा मकसद रहा ,
बिसात की चाल को मैं समझाता रहा ,
बिना वक़्त के मैं यूँ ही मात खाता रहा ,
आया वक़्त जब क़रीब ,शै मेरा हो गया ,
वक्त को साथ ले चाल चलता रहा ,
आहिस्ता आहिस्ता मैं जीत के करीब आ गया।
०९/०६/२०१६ ---रात १ बजे
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