Friday 28 September 2012

कली एक मुहब्बत kali ek muhabbat -कविता सुनील अग्रहरि

                       


मासूम कली पर नज़र पड़ी ,
माली गया था बगीचे 
मुहब्बत से सीचने उस घडी ,
नर्म सुबह की ओस सी  मुहब्बत की पहली बूँद 
कली पर पड़ी 
मुस्कुरा उठी कली की नर्म होंठो सी पंखुड़ी ,
शर्म से मखमली डालियों सी बाहे मुझसे लगी खिचने ,
यूं तो हजारो फूल और कालिया , 
 महका रही थी माली  की दुनियां ,
मगर न लगा दिल किसी में .......
अपनी चाहत से सीचते सीचते मेरी  ज़िन्दगी 
दिन और रात के फूलों की माला बनाती जा रही है 
इस माला के अंतिम फूल, ये कली ही तो है 
तभी तो माली का वक्त , कली  को फूल बनाने में  बीतने लगा है ,
जाने क्या बात है इस कली की खुशबू में ,
सब छोड़ इस कली के पास ही आने लगा है ,
कली की  कोमल  पत्ती में, अपनी  ज़िन्दगी की महक पाता है,
दिन ब दिन कली की खुशबू बढ रही है ,
शायद इसमें माली को अपनी मुहब्बत दिख रही है ,
कली को अपने सब्र का बाँध टूटता सा दिख रहा है ,
क्यों की अब वो  खिलना चाहती है,
मगर वो हैरान है 
क्यों ?
क्यों की माली की बाहें ,लहूलुहान है ,
हिम्मत करती है ,पूछती है कली,
तेरी बाहें लहूलुहान क्यों है ऐ माली .......?
माली घबराता  है ,अपनी बाँहों को छुपाते हुवे कहता  है,
मेरे बाजू में घाव ,उन फूलों ने दिए  है 
जिन्हों ने अपने कांटे हमें , खुशबू औरो को दिए है ,
सुन कर ज्वालामुखी सा सच 
कली दुगुनी खुशबू के साथ ,
फूल बन कर आ गिरी, घायल  माली के दामन में ,
माली ने भी फूल को लगा दिया माला के अन्त में ,
फूल भी माली के आंशियां के गुलदस्ते में ,
सुकून से सज के मुस्कुराते हुवे खुशबू से माली के 
घाव को सींच  रही है  .........
    





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