.... वक़्त की बिसात ....... १६ /०९ / २०१४
वक्त की बिसात पर मुकद्दर की चाल तय है ,
न एक घर काम न घर ज्यादा
कहीं ख़ुशी मिले कम कभी ग़म मिले ज्यादा ,
वक्त जितना चाहता है मुकद्दर देता है वही ,
हमारे हिसाब से होता है कुछ गलत या सही ,
लकिन ज़िन्दगी में ऐसा होता नहीं
जैसा चाहो जब चाहो जो चाहो मिल जाये वही
जिससे बचना चाहो सामने आता है वही ,
मन के कोने में हमेशा एक शिकायत सी बनी रहती है
वक्त की बिसात पर ………।
वक्त दोहराता है कई बार कहानियां ,
किरदार बदल जाते है , बदलती है रावनियाँ ,
मगर वापस नहीं देता किसी की जवानियाँ ,
पैदा होते है मरते है सब इसके सामने
बर्बाद आबाद होता है इसके सामने
किसको मिलेगी मन्ज़िल , कौन मिल जायेगा धूल के गुबार में ,
ये इतिहास बनाने में है माहिर , मगर करता नहीं ज़ाहिर ,
वक्त की बिसात पर .........................
कहते है वक्त का हर शै ग़ुलाम , वक्त ही इबादत वक्त को सलाम
लिखता यही है सब के कलाम ,
कोई भी रहा न इससे अछूता , करे इसका सामना न है किसी में बूता ,
वक्त तो हर काम का बनाता है बहाना ,
हम देते रह जाते है एक दूसरे को ताना ,
वक्त अथाह समुद्र है इसको पार पाना मुश्किल ही नहीं न मुमकिन है ,
जो इससे ताल मिला बहाव में तैर पाया वो वर्तमान होता है ,
वक्त की बिसात पर .........................
एक अजीब सी डोर से बाँध रखा है सारी कायनात को ,
सब हँसते गाते रोते थकते सोते जागते सफर तय करते है ,
सारी दुनियां का मुंसिफ़ , हर लम्हे पे इसका पहरा है ,
फैसला होता है अटल , सजा सब की मुकर्रर है ,
किसी को मिली आह ,किसी को मिली वाह ,
ये सगा न किसी का ,न रत्ती भर परवाह किसी की,
सुदामा को भी न बख्शा , सखा थे कृष्णा के जब की ,
भटकाया दर दर , किया दाने दाने को मोहताज ,
कराया गलती का एहसास , फिर दिया सुख का ताज ,
वक्त की बिसात पर ……………… .......
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