… पत्थर का दर्द …
तराशो न मुझे ,यूँ ही पड़ा रहने दो
राह का पत्थर हूँ ,यूँ ही ठोकर खाने दो
गर तराशोगे मुझको हथोड़े चलेंगे
पैरों के ठोकर की आदत पड़ी है ..........
वैसे तो ठोकर भी अब सहा नहीं जाता
अभी कल की ही बात है..........
जाने किस्से चोट लगी ,बड़ी तेज़ चिंगारी उठी
सोचा चिल्लाऊं ,लकिन आवाज़ ही नहीं निकली
सोचा, देखूं ,कहाँ चोट लगी है ?
देखते ही आँखों ने नम होना चाहा
मगर ऑंखें, रेगिस्तान जैसे सुखी रहा गई ,
फिर अचानक याद आई .......
हमारी जात में ऐसी सुविधा कहाँ ,
इसी लिए मजबूर हूँ ,लाचार हूँ ,समझ में नहीं आता ,
रब ने हम पत्थरों से क्यूँ की बेवफाई
हम पत्थरों की जात में आवाज़ ,आंसू क्यों न बनाई .....?
हम इसी में संतोष कर लेते ...
जिसने जैसा चाह फोड़ा , जैसा चाहा तोड़ा
मगर हमने उफ़ तक न किया , जवाब भी न दिया.
किसी को मारने का काम भी मुझसे ही लिया ,
क्या करूँ ....हाथ ही नहीं है ...नहीं तो रोक लेता
सारी अहिंसा तो हम पत्थरों की जात में मिलेगी,
वैसे हम लोगों को इसी बात का गर्व ,
और इसी बात का दर्रद है ....
शायद ....इसी लिए हम लोग पत्थर कहे जाते है
अरे ...ओ ऊपर वाले .....
हम लोगो की थोड़ी सी अहिंसा ,मनुष्यों को दे देते
तो शायद मनुष्यों की ये हालत न होती ,......
और हमे इनके थोड़े से आंसू दे देते
तो शायद हम लोग भी रो कर जी हल्का कर लेते ,
और ख़ुशी ख़ुशी दर्द सह लेते ,
तब शायद पत्थर होने का गम न होता .......3
लेखक -सुनील अग्रहरि
kya baat hai , lajawab hai hum
ReplyDeletegar patharo ko mile zuban
karne lage wo yu bayan
to bol uthega har insa
rehne de, hue sharm saar haihum
sawaal patharon ne poochhe lajwaab hai hum
bahot bahot dhanyawad.
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